हवा के झोंके ने फिर से पन्नों को सहलाया,
एक तो हुस्न कयामत उसपे होठों का लाल होना।
झुकाकर पलकें शायद कोई इकरार किया उसने,
जो सूख जाये दरिया तो फिर प्यास भी न रहे,
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न जाने उससे मिलने का इरादा कैसा लगता है,
भटका हूँ तो क्या हुआ संभालना भी खुद को होगा।
महफ़िल में रह के भी रहे तन्हाइयों में हम,
सुना है कि महफ़िल में वो बेनकाब आते हैं।
बिछड़ के मुझ से वो दो दिन उदास भी न रहे।
कभी उनकी याद आती है कभी उनके ख्वाब आते हैं,
रास्ते पर तो खड़ा हूँ पर चलना भूल गया हूँ।
कुछ बदल जाते हैं, कुछ मजबूर हो जाते हैं,
समंदर पीर का अन्दर है, लेकिन रो नहीं सकता,